भारत से रक्षा सौदों में अब रूस की बजाय अमेरिका का पलड़ा भारी, ट्रेड डील न होने पर ट्रम्प डिफेंस डील जरूर चाहेंगे
- भारत जापान, कोरिया या तुर्की की तरह अमेरिका का सहयोगी नहीं, इसके बावजूद अमेरिकी सरकार ने उच्च स्तरीय हथियारों की बिक्री का रास्ता साफ किया
- सऊदी अरब के बाद हथियारों की खरीद करने वाला भारत दूसरा सबसे बड़ा देश है, 2016 में अमेरिका ने भारत को डिफेंस पार्टनर का दर्जा दिया
26 दिसंबर 2004 को जब सुनामी ने तबाही मचाई तो भारत ने अपने समुद्री क्षेत्रों और पड़ोसी मुल्कों की मदद से कुछ ही घंटों में 32 वॉरशिप, 20 हेलिकॉप्टर और 7 विमानों को राहत ऑपरेशन में लगा दिया। इतने कम समय में ही ऑपरेशन लॉन्च कर देने से भारत की दुनियाभर में सराहना हुई। लेकिन, इस पूरे ऑपरेशन के दौरान भारतीय नौसेना को अहम कमजोरी का अहसास भी हुआ और वह थी- सी लिफ्ट और इंटिग्रल एयरलिफ्ट क्षमता की कमी। इसके लिए जून 2007 में पहले लैंडिंग डॉक प्लेटफॉर्म यानी एलडीपी से लैस आईएनएस जलाश्व को नौसेना में शामिल किया गया। आईएनएस जलाश्व को अमेरिका से खरीदा गया था। अमेरिकी नेवी में इसे यूएसएस ट्रैंटन के तौर पर कमीशन किया गया था। इससे भारतीय नौसेना की एयरलिफ्ट क्षमता भी बढ़ी। इसके बाद से भारत और अमेरिका के रक्षा संबंध और मजबूत हुए हैं। द्विपक्षीय रिश्तों में आज रक्षा और ऊर्जा सबसे अहम क्षेत्रों में शामिल हैं।
पिछले 12 साल में भारत ने अमेरिका से 18 अरब डॉलर के हथियार खरीदे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दौरे से पहले सुरक्षा मसलों की कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सीसीएस) ने 2.6 अरब डॉलर की लागत से 24 एमएच 60आर मल्टीरोल हेलिकॉप्टर खरीदने की डील को मंजूरी दी। इसके अलावा कम से कम 8 से 10 अरब डॉलर के रक्षा सौदों पर भी दोनों देशों के बीच चर्चा जारी है। हेलिकॉप्टर डील पर नौसेना के पूर्व प्रवक्ता रिटायर्ड कैप्टन डीके शर्मा कहते हैं कि सी किंग्स की कमी नौसेना को हमेशा से खल रही थी। इससे यह कमी भी पूरी हो जाएगी।
एक साल में अमेरिका से 4-5 हेलिकॉप्टर मिलने की उम्मीद
समुद्र में तैनात जहाजों को सबसे ज्यादा खतरा दुश्मनों की पनडुब्बियों से है। इन पनडुब्बियों के खिलाफ इन मल्टीरोल हेलिकॉप्टर की निगरानी और मारक क्षमता अहम सुरक्षा कवच है। सूत्रों के मुताबिक, इस करार पर दस्तखत के बाद एक साल के अंदर ही 4-5 हेलिकॉप्टर भारत को मिलने की उम्मीद है। इन हेलिकॉप्टर का यूएसएस गेराल्ड आर फोर्ड में ट्रायल हो रहा है। आज इंडियन ओशन रीजन (आईओआर) में चीन-पाकिस्तान समेत किसी भी वक्त कम से कम 40-50 जहाजों की मौजूदगी दर्ज की जाती है। ऐसे में "ब्लू इकोनॉमी' के भारत सरकार के मकसद के लिए जरूरी तटीय सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थायित्व बनाए रखने में यह मल्टी रोल एमएच 60आर कारगर होंगे।
समुद्र में तैनात जहाजों को सबसे ज्यादा खतरा दुश्मनों की पनडुब्बियों से है। इन पनडुब्बियों के खिलाफ इन मल्टीरोल हेलिकॉप्टर की निगरानी और मारक क्षमता अहम सुरक्षा कवच है। सूत्रों के मुताबिक, इस करार पर दस्तखत के बाद एक साल के अंदर ही 4-5 हेलिकॉप्टर भारत को मिलने की उम्मीद है। इन हेलिकॉप्टर का यूएसएस गेराल्ड आर फोर्ड में ट्रायल हो रहा है। आज इंडियन ओशन रीजन (आईओआर) में चीन-पाकिस्तान समेत किसी भी वक्त कम से कम 40-50 जहाजों की मौजूदगी दर्ज की जाती है। ऐसे में "ब्लू इकोनॉमी' के भारत सरकार के मकसद के लिए जरूरी तटीय सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थायित्व बनाए रखने में यह मल्टी रोल एमएच 60आर कारगर होंगे।
भारत की रूस पर निर्भरता घटी
एक समय में भारत अपनी जरूरत के 70% से 75% हथियार और सैन्य उपकरण रूस से खरीदता था। आज यह खरीद घटकर 60 से 62% पर आ गई है क्योंकि आज ज्यादा विकल्प मौजूद हैं। सऊदी अरब के बाद हथियारों की खरीदी करने वाला भारत दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत-अमेरिका के बीच परमाणु और सामरिक समझौते के बाद से अमेरिकी उच्च स्तरीय हथियारों और जहाजों की बिक्री के लिए अब दरवाजे भारत के लिए खुल गए हैं, जो पहले अविश्वास की वजह से बंद थे। 2016 में अमेरिका ने भारत को डिफेंस पार्टनर का दर्जा दिया। भारत जापान, कोरिया या तुर्की की तरह अमेरिका का सहयोगी नहीं है, लेकिन इसके बावजूद अमेरिकी सरकार और पेंटागन ने अपने कीमती लेकिन उच्च स्तरीय हथियारों की बिक्री का रास्ता साफ कर दिया। आज खासतौर से एविएशन सेक्टर में रूस कटिंग एज टेक्नीक का मुकाबला नहीं कर पा रहा है। इस वजह से भारत रूस की जगह अमेरिका की तरफ जा रहा है। रूस के मिग 21 और मिग 35 हेलिकॉप्टरों की जगह अमेरिकी अपाचे ले रहे हैं। हैवी लिफ्ट के लिए इस्तेमाल होने वाले मिग 26 की जगह चिनूक सीएच46 हेलिकॉप्टर शामिल हो रहे हैं।
एक समय में भारत अपनी जरूरत के 70% से 75% हथियार और सैन्य उपकरण रूस से खरीदता था। आज यह खरीद घटकर 60 से 62% पर आ गई है क्योंकि आज ज्यादा विकल्प मौजूद हैं। सऊदी अरब के बाद हथियारों की खरीदी करने वाला भारत दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत-अमेरिका के बीच परमाणु और सामरिक समझौते के बाद से अमेरिकी उच्च स्तरीय हथियारों और जहाजों की बिक्री के लिए अब दरवाजे भारत के लिए खुल गए हैं, जो पहले अविश्वास की वजह से बंद थे। 2016 में अमेरिका ने भारत को डिफेंस पार्टनर का दर्जा दिया। भारत जापान, कोरिया या तुर्की की तरह अमेरिका का सहयोगी नहीं है, लेकिन इसके बावजूद अमेरिकी सरकार और पेंटागन ने अपने कीमती लेकिन उच्च स्तरीय हथियारों की बिक्री का रास्ता साफ कर दिया। आज खासतौर से एविएशन सेक्टर में रूस कटिंग एज टेक्नीक का मुकाबला नहीं कर पा रहा है। इस वजह से भारत रूस की जगह अमेरिका की तरफ जा रहा है। रूस के मिग 21 और मिग 35 हेलिकॉप्टरों की जगह अमेरिकी अपाचे ले रहे हैं। हैवी लिफ्ट के लिए इस्तेमाल होने वाले मिग 26 की जगह चिनूक सीएच46 हेलिकॉप्टर शामिल हो रहे हैं।
हिंद महासागर में भारत की चुनौतियां और इंडो-पैसिफिक में पांव पसारता चीन भी इसकी एक बड़ी वजह है। रूस के मुकाबले इस क्षेत्र में अमेरिका की पहुंच और सैन्य ठिकाने कहीं गुना ज्यादा हैं। आज पी8आई के जरिए भारत और अमेरिका चीन की गतिविधियों पर नजर रखे हुए हैं। रूस के साथ होने वाले एक-दो जंगी अभियान के मुकाबले भारत-अमेरिका कम से कम 20 से 24 द्विपक्षीय और बहुपक्षीय अभ्यास कर रहे हैं। भारत-अमेरिकी सेनाओं को साथ काम करने और संपर्क साधने में आसानी हो, इसके लिए लेमोआ (LEMOA) और कॉमकासा (COMCASA) जैसे समझौते भी हो रहे हैं।
टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का मसला अब भी नहीं सुलझा
भारत वॉशिंगटन के राजनीतिक दबाव के बावजूद अपने रक्षा सौदों की पूर्ति के लिए सिर्फ अमेरिका पर निर्भर होने की गलती नहीं कर सकता। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का मुद्दा आज भी रिश्तों के सबसे बड़े कांटों में शामिल है, जो मोदी सरकार के मेक इन इंडिया के सपनों के लिए स्पीड ब्रेकर है। अमेरिका अपनी हाई-टेक्नोलॉजी को बारगेनिंग चिप के तौर पर इस्तेमाल करता है। फिर भले ही उसे सामने उसका सबसे करीबी दोस्त इजरायल ही क्यों न हो। भारत में स्वदेशी तकनीक से बन रहे लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट तेजस के इंजन भी अमेरिकी हैं, लेकिन अपनी जेट इंजन की तकनीक अमेरिका भारत से शायद ही कभी साझा करे।
भारत वॉशिंगटन के राजनीतिक दबाव के बावजूद अपने रक्षा सौदों की पूर्ति के लिए सिर्फ अमेरिका पर निर्भर होने की गलती नहीं कर सकता। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का मुद्दा आज भी रिश्तों के सबसे बड़े कांटों में शामिल है, जो मोदी सरकार के मेक इन इंडिया के सपनों के लिए स्पीड ब्रेकर है। अमेरिका अपनी हाई-टेक्नोलॉजी को बारगेनिंग चिप के तौर पर इस्तेमाल करता है। फिर भले ही उसे सामने उसका सबसे करीबी दोस्त इजरायल ही क्यों न हो। भारत में स्वदेशी तकनीक से बन रहे लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट तेजस के इंजन भी अमेरिकी हैं, लेकिन अपनी जेट इंजन की तकनीक अमेरिका भारत से शायद ही कभी साझा करे।
ट्रम्प की कोशिश रक्षा सौदों में इजाफे पर रहेगी
रूस और भारत ब्रह्मोस के निर्माण में साझेदार हैं। अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद भारत रूस से एस400 एंटी मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीद रहा है। लेकिन, सोवियत दौर के खरीदे हुए हथियार, स्पेयर पार्ट और मरम्मत से जुड़ी देरी और कीमतों को लेकर भारत की आमतौर पर शिकायतें रहती हैं। ऐसे में भारत आज अगर फ्रांस से राफेल खरीद रहा है। स्वीडन से साब को लेकर चर्चा हो रही है। तो कोशिश है कि सामरिक संप्रभुता बनी रहे। लेकिन, अमेरिका का पलड़ा धीरे-धीरे भारी जरूर हो रहा है। बेरोकटोक बातें करने और राष्ट्रवादी डंडा चलाने वाले राष्ट्रपति ट्रम्प की कोशिश होगी कि भारत अगर कारोबारी डील को लेकर सहमत नहीं हो रहा है तो कम से कम रक्षा सौदों पर इजाफा करे।
रूस और भारत ब्रह्मोस के निर्माण में साझेदार हैं। अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद भारत रूस से एस400 एंटी मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीद रहा है। लेकिन, सोवियत दौर के खरीदे हुए हथियार, स्पेयर पार्ट और मरम्मत से जुड़ी देरी और कीमतों को लेकर भारत की आमतौर पर शिकायतें रहती हैं। ऐसे में भारत आज अगर फ्रांस से राफेल खरीद रहा है। स्वीडन से साब को लेकर चर्चा हो रही है। तो कोशिश है कि सामरिक संप्रभुता बनी रहे। लेकिन, अमेरिका का पलड़ा धीरे-धीरे भारी जरूर हो रहा है। बेरोकटोक बातें करने और राष्ट्रवादी डंडा चलाने वाले राष्ट्रपति ट्रम्प की कोशिश होगी कि भारत अगर कारोबारी डील को लेकर सहमत नहीं हो रहा है तो कम से कम रक्षा सौदों पर इजाफा करे।
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